जीवन में शांति लानी है तो तीन प्रकार के विष से हमें मुक्त होना पड़ेगा और पांच प्रकार के अमृत का पान करना पड़ेगा। वे तीन विष क्या हैं? हमारे जीवन में आने वाली विषम परिस्थितियां विष हैं। ये जीवन में आएंगी ही। मुक्त भाव से इन्हें स्वीकार करना है। नदी पार करनी है तो पानी में उतरना होगा। पानी से डर कर भागने से कभी नदी पार नहीं कर सकते। विषमता अर्थात एक दूसरे में भेद करना विष है। सबको परमात्मा ने ही बनाया है।
सब ईश्वर की संतान हैं तो फिर भेद कैसा? तीसरा, सभी विषय विष हैं। उनसे मुक्त रहना है। संतुलन बनाकर चलना है। पांच अमृत हैं। पहला अमृत है क्षमा। क्रोध और बदले की भावना विष है और क्षमा अमृत है। दूसरा अमृत है सुकोमलता, विनम्रता। कठोरता है विष, जबकि कोमलता, सरलता, सहजता, हरि को सिमरना अमृत हैं। मुस्कुराते रहिए, इससे आपत्तियां स्वतः ही टल जाती हैं। किसी बात से भाग जाने से कभी कुछ हल नहीं होता, बल्कि जो भी होगा, वह उस बात को जानने एवं प्रयत्न से होगा। तीसरा अमृत है दया। शाप विष है। चौथा अमृत है संतोष।
पूरी जिंदगी असंतोष में रहना विषपान है। जिन लोगों को तृप्ति नहीं होती, समझो वह निरंतर विष पी रहे हैं। आमदनी में भी संतोष होना चाहिए। पांचवां अमृत है सत्य। हम विषों से कितने मुक्त हैं और अमृत का कितना पान कर रहे हैं, इसके लिए प्रतिदिन खुद का दर्शन करना होगा। पांच मिनट प्रतिदिन निकालना कि मैंने क्या-क्या किया है। लोग मुझे सज्जन मानते हैं, लेकिन मैंने कोई असज्जन कार्य तो नहीं किया? यह निज दर्शन है। निज दर्शन करते हुए हम समाधि को प्राप्त हो सकते हैं। समाधि के पांच प्रकार हैं।
गुरु कृपा में अंतिम विश्वास समाधि है। विचार भी एक प्रकार की समाधि है। विचार-शून्य होना भी एक प्रकार की समाधि है। बुद्ध पुरुष की प्रत्येक चेष्टा समाधि में ही होती है। केवल हरि के विचारों में डूब जाना हमारे जैसों के लिए एक समाधि ही है। शुभ चिंतन में डूब जाना भी समाधि के समान है। कोई कुछ भी बोले या अर्थ निकाले, लेकिन हम चुपचाप रहें, मौन रहें तो वह विवेक-समाधि कहलाती है। प्रसन्नता में डूब जाना और मुस्कुराना भी समाधि है। परमशक्ति के विरह में रोना और प्राप्ति पर हर्ष भी समाधि का एक प्रकार है। समाधि की प्रक्रिया में न चाहते हुए भी विघ्न आ ही जाता है। आलस्य, भोग, लालसा, निद्रा, अधिक अंधकार, विक्षेप, रस-शून्यता भी समाधि में विघ्नता लाते हैं।निज दर्शन करते हुए हम समाधि के इन विघ्नों से सावधान रह सकते हैं। मैं आपसे एक बात और कहूंगा। मस्तिष्क और हृदय जब अपनी-अपनी कहें, तो क्या करेंगे? हृदय भी हमारा है और मस्तिष्क भी। मस्तिष्क व्यवहार निभा रहा है, वहीं हृदय हमारे प्रेम की सुरक्षा करता है। दोनों आवश्यक हैं, लेकिन दोनों जब एक साथ टूट पड़ें कि यह करो, यह करो तो मस्तिष्क की सुनिए, लेकिन हृदय का कहा कीजिए। हृदय ही आत्मा है। मस्तिष्क और हृदय जब दोनों अपनी अपनी बात कहें तो हृदय की बात का अनुसरण होना चाहिए। कभी-कभी इंसान दिमाग की बात सुन लेता है और दिल की बात अनसुनी कर देता है और मार खा जाता है।